Saturday, 12 December 2020
History of Rajbhar
ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती
नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच
था। इसी कारण इन्हे बहराइच नरेश के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इन्हीं महाराजा
प्रसेनजित को माघ मांह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई. को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई
जिसका नाम सुहेलदेव रखा गया। अवध गजेटीयर के अनुसार इनका शासन काल 1027 ई. से 1077
तक स्वीकार किया गया है। वे जाति के राजभर थे, राजभर अथवा जैन, इस पर सभी एकमत नही
हैं। महाराजा सुहेलदेव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला
हुआ था। गोंडा बहराइच, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव व लखीमपुर इस राज्य की सीमा के अंतर्गत
समाहित थे। इन सभी जिलों में राजा सुहेल देव के सहयोगी राजभर राजा राज्य करते थे जिनकी
संख्या 21 थी। ये थे -1. रायसायब 2. रायरायब 3. अर्जुन 4. भग्गन 5. गंग 6. मकरन 7.
शंकर 8. करन 9. बीरबल 10. जयपाल 11. श्रीपाल 12. हरपाल 13. हरकरन 14. हरखू 15. नरहर
16. भल्लर 17. जुधारी 18. नारायण 19. भल्ला 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण ये सभी वीर राजा
महाराजा सुहेल देव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्ररक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के
लिए तत्पर रहते थे। इनके अतिरिक्त राजा सुहेल देव के दो भाई बहरदेव व मल्लदेव भी थे
जो अपने भाई के ही समान वीर थे। तथा पिता की भांति उनका सम्मान करते थे। महमूद गजनवी
की मृत्य के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद
सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्व
ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार
साहू, सालार सैफुद्ीन, अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद
नसरूल्लाह आदि एक बड़ी धुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर युद्व
प्रारंभ हो गया जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए। इस लड़ाई के दौरान
राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने धोड़े दौड़ाकर मसूद पर गदे से प्रहार किया जिससे
उसकी आंख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट गए। हालांकि ये दोनों ही वीर इस युद्ध
में लड़ते हुए शहीद हो गए लेकिन उनकी वीरता व असीम साहस अद्वितीय थी। मेरठ का राजा
हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा उसने मसूद से संधि कर ली यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूं
के शासकों की भी हुई। कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया। अतः सालार मसूद ने कन्नौज
को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं भेजना
प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तॠषि
(सतरिख) की ओर बढ़ा। मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का
एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था। एक किवदंती के अनुसार इस स्थान पर भगवान राम व लक्ष्मण
ने शिक्षा प्राप्त की थी। यह सात ॠषियों का स्थान था, इसीलिए इस स्थान का सप्तऋर्षि
पड़ा था, जो धीरे-धीरे सतरिख हो गया। सालार मसूद विलग्राम, मल्लावा, हरदोई, संडीला,
मलिहाबाद, अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुंचा। उसने अपने गुरू सैयद इब्राहीम बारा
हजारी को धुंधगढ़ भेजा क्योंकि धुंधगढ क़े किले में उसके मित्र दोस्त मोहम्मद सरदार
को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था। इब्राहिम बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर
मुसलमानों का बचना मुस्किल था। बचता वही था जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था। आइनये मसूदी
के अनुसार – निशान सतरिख से लहराता हुआ बाराहजारी का। चला है धुंधगढ़ को काकिला बाराहजारी
का मिला जो राह में मुनकिर उसे दे उसे दोजख में पहुचाया। बचा वह जिसने कलमा पढ़ लिया
बारा हजारी का। इस लड़ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड़ी ही बीरता से लड़े लेकिन वीरगति
को प्राप्त हुए। परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों इब्राहीम बाराहजारी मारा
गया। कडे क़े राजा देव नारायन और मानिकपुर के राजा भोजपात्र ने एक नाई को सैयद सालार
मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी नहन्नी से उसके नाखून काटे, ताकि सैयद सालार मसूद
की इहलीला समाप्त हो जायें लेकिन इलाज से वह बच गया। इस सदमें से उसकी माँ खुतुर मुअल्ला
चल बसी। इस प्रयास के असफल होने के बाद कडे मानिकपुर के राजाओं ने बहराइच के राजाओं
को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इस्लामी सेना पर आक्रमण करें और तुम अपनी ओर से। इस
प्रकार हम इस्लामी सेना का सफाया कर देगें। परंतु संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचरों
द्वारा बंदी बना लिए गए। इन संदेशवाहकों में दो ब्राह्मण और एक नाई थे। ब्राह्मणों
को तो छोड़ दिया गया लेकिन नाई को फांसी दे दी गई इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता
सालार साहु ने एक बडी सेना के साथ कड़े मानिकपुर पर धावा बोल दिया। दोनों राजा देवनारायण
व भोजपत्र बडी वीरता से लड़ें लेकिन परास्त हुए। इन राजाओं को बंदी बनाकर सतरिख भेज
दिया गया। वहॉ से सैयद सालार मसूद के आदेश पर इन राजाओं को सालार सैफुद्दीन के पास
बहराइच भेज दिया गया। जब बहराइज के राजाओं को इस बात का पता चला तो उन लोगो ने सैफुद्दीन
को धेर लिया। इस पर सालार मसूद उसकी सहायता हेतु बहराइच की ओर आगें बढे। इसी बीच अनके
पिता सालार साहू का निधन हो गया।
बहराइच के राजभर राजा भगवान सूर्य के उपासक थे। बहराइच में सूर्यकुंड पर स्थित भगवान सूर्य के मूर्ति की वे पूजा करते थे। उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास मे प्रथम रविवार को, जो बृहस्पतिवार के बाद पड़ता था एक बड़ा मेला लगता था यह मेला सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा प्रत्येक रविवार को भी लगता था। वहां यह परंपरा काफी प्राचीन थी। बालार्क ऋषि व भगवान सूर्य के प्रताप से इस कुंड मे स्नान करने वाले कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाया करते थे। बहराइच को पहले ब्रह्माइच के नाम से जाना जाता था। सालार मसूद के बहराइच आने के समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण – राजा रायब, राजा सायब, अर्जुन भीखन गंग, शंकर, करन, बीरबर, जयपाल, श्रीपाल, हरपाल, हरख्, जोधारी व नरसिंह महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबंद हो गये। ये राजा गण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूरी पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए। अभी ये युद्व की तैयारी कर ही रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई मे सालार मसूद बिजयी रहा। पहली लड़ार्ऌ मे परास्त होने के पश्चात पुनः अगली लडार्ऌ हेतु हिंदू सेना संगठित होने लगी उन्होने रात्रि आक्रमण की संभावना पर ध्यान नही दिया। उन्होने राजा सुहेलदेव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारो विषबुझी कीले अवश्य धरती में छिपा कर गाड़ दी। ऐसा रातों रात किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जब मसूद की धुडसवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी चपेट मे आ गए। हालाकि हिंदू सेना इस युद्व मे भी परास्त हो गई लेकिन इस्लामी सेना के एक तिहायी सैनिक इस युक्ति प्रधान युद्व मे मारे गए। भारतीय इतिहास मे इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी। दो बार धोखे का शिकार होने के बाद हिंदू सेना सचेत हो गई तथा महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ार्ऌ हेतु तैयार हो गई। कहते है इस युद्ध में प्रत्येक हिंदू परिवार से युवा हिंदू इस लड़ार्ऌ मे सम्मिलित हुए। महाराजा सुहेलदेव के शामिल होने से हिंदूओं का मनोबल बढ़ा हुआ था। लड़ाई का क्षेत्र चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था। जुन, 1034 ई. को हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व (मैमना) की कमान मीरनसरूल्ला को तथा बाये पार्श्व (मैसरा) की कमान सालार रज्जब को सौपा तथा स्वयं केंद्र (कल्ब) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारो गायों व बैलो को छोड़ा गया ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके लेकिन महाराजा सुहेलदेव की सेना पर इसका कोई भी प्रभाव न पड़ा। वे भूखे सिंहों की भाति इस्लामी सेना पर टूट पडे मीर नसरूल्लाह बहराइच के उत्तर बारह मील की दूरी पर स्थित ग्राम दिकोली के पास मारे गए। सैयर सालार समूद के भांजे सालार मिया रज्जब बहराइच के पूर्व तीन कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत यूसुफ के पास मार दिये गए। इनकी मृत्य 8 जून, 1034 ई 0 को हुई। अब भारतीय सेना ने राजा करण के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वंय कर कहा था। उसने सालार मसूद को धेर लिया। इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढे भयकर युद्व हुआ जिसमें हजारों लोग मारे गए। स्वयं सालार सैफुद्दीन भी मारा गया उसकी समाधि बहराइच-नानपारा रेलवे लाइन के उत्तर बहराइच शहर के पास ही है। शाम हो जाने के कारण युद्व बंद हो गया और सेनाएं अपने शिविरों में लौट गई। 10 जून, 1034 को महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। इस युद्ध में सालार मसूद अपनी धोड़ी पर सवार होकर बड़ी वीरता के साथ लड़ा लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका। राजा सुहेलदेव ने शीध्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा जिससे उसका प्राणांत हो गया। इसके दूसरे हीं दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार इब्राहीम भी बचे हुए सैनिको के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने विजय पर्व मनाया और इस महान विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए। वे विशाल ”विजय स्तंभ” का भी निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न कर सके। संभवतः यह वही स्थान है जिसे एक टीले के रूप मे श्रावस्ती से कुछ दूरी पर इकोना-बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है।
बहराइच के राजभर राजा भगवान सूर्य के उपासक थे। बहराइच में सूर्यकुंड पर स्थित भगवान सूर्य के मूर्ति की वे पूजा करते थे। उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास मे प्रथम रविवार को, जो बृहस्पतिवार के बाद पड़ता था एक बड़ा मेला लगता था यह मेला सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा प्रत्येक रविवार को भी लगता था। वहां यह परंपरा काफी प्राचीन थी। बालार्क ऋषि व भगवान सूर्य के प्रताप से इस कुंड मे स्नान करने वाले कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाया करते थे। बहराइच को पहले ब्रह्माइच के नाम से जाना जाता था। सालार मसूद के बहराइच आने के समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण – राजा रायब, राजा सायब, अर्जुन भीखन गंग, शंकर, करन, बीरबर, जयपाल, श्रीपाल, हरपाल, हरख्, जोधारी व नरसिंह महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबंद हो गये। ये राजा गण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूरी पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए। अभी ये युद्व की तैयारी कर ही रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई मे सालार मसूद बिजयी रहा। पहली लड़ार्ऌ मे परास्त होने के पश्चात पुनः अगली लडार्ऌ हेतु हिंदू सेना संगठित होने लगी उन्होने रात्रि आक्रमण की संभावना पर ध्यान नही दिया। उन्होने राजा सुहेलदेव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारो विषबुझी कीले अवश्य धरती में छिपा कर गाड़ दी। ऐसा रातों रात किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जब मसूद की धुडसवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी चपेट मे आ गए। हालाकि हिंदू सेना इस युद्व मे भी परास्त हो गई लेकिन इस्लामी सेना के एक तिहायी सैनिक इस युक्ति प्रधान युद्व मे मारे गए। भारतीय इतिहास मे इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी। दो बार धोखे का शिकार होने के बाद हिंदू सेना सचेत हो गई तथा महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ार्ऌ हेतु तैयार हो गई। कहते है इस युद्ध में प्रत्येक हिंदू परिवार से युवा हिंदू इस लड़ार्ऌ मे सम्मिलित हुए। महाराजा सुहेलदेव के शामिल होने से हिंदूओं का मनोबल बढ़ा हुआ था। लड़ाई का क्षेत्र चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था। जुन, 1034 ई. को हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व (मैमना) की कमान मीरनसरूल्ला को तथा बाये पार्श्व (मैसरा) की कमान सालार रज्जब को सौपा तथा स्वयं केंद्र (कल्ब) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारो गायों व बैलो को छोड़ा गया ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके लेकिन महाराजा सुहेलदेव की सेना पर इसका कोई भी प्रभाव न पड़ा। वे भूखे सिंहों की भाति इस्लामी सेना पर टूट पडे मीर नसरूल्लाह बहराइच के उत्तर बारह मील की दूरी पर स्थित ग्राम दिकोली के पास मारे गए। सैयर सालार समूद के भांजे सालार मिया रज्जब बहराइच के पूर्व तीन कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत यूसुफ के पास मार दिये गए। इनकी मृत्य 8 जून, 1034 ई 0 को हुई। अब भारतीय सेना ने राजा करण के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वंय कर कहा था। उसने सालार मसूद को धेर लिया। इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढे भयकर युद्व हुआ जिसमें हजारों लोग मारे गए। स्वयं सालार सैफुद्दीन भी मारा गया उसकी समाधि बहराइच-नानपारा रेलवे लाइन के उत्तर बहराइच शहर के पास ही है। शाम हो जाने के कारण युद्व बंद हो गया और सेनाएं अपने शिविरों में लौट गई। 10 जून, 1034 को महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। इस युद्ध में सालार मसूद अपनी धोड़ी पर सवार होकर बड़ी वीरता के साथ लड़ा लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका। राजा सुहेलदेव ने शीध्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा जिससे उसका प्राणांत हो गया। इसके दूसरे हीं दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार इब्राहीम भी बचे हुए सैनिको के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने विजय पर्व मनाया और इस महान विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए। वे विशाल ”विजय स्तंभ” का भी निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न कर सके। संभवतः यह वही स्थान है जिसे एक टीले के रूप मे श्रावस्ती से कुछ दूरी पर इकोना-बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है।
1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी
ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व
सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ
उसके भान्जे सैयद सालार मसूद गाजी ने भी ...भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनबी की
मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी मसूद ने अपने कंधो
पर ली लेकिन 10 जून, 1034 ई0 को बहराइच की लड़ाई में वहां के शासक महाराजा सुहेलदेव
के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया। इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद
भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में व्याप्त हो गया कि उसके बाद आने वाले 150 वर्षों
तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ।
Rajbhar Samaj
भरत जाति
भरत जाति ऋगवेदिक काल के आर्यों मे अनेक जातिया थी जो एक दुसरे से परम्परागत रूप से अलग थी! अनु , द्रुहाउ, यदु, तुर्वस,पुरु और भरत इत्यादि आर्यों के कबीले थे ! ऋगवैद से मालूम होता है कि भरतगन (तत्सू) उन कबीलों मे संख्या मे कम था जो आगे चलकर कुरुवंश मे शामिल हो गए ! भरतगन शत्रुओ से घिरे हुए और अल्पसंख्यक थे ! जब वसीष्ठ उनके पुरोहित हुए तब उनकी संतति ज्ञान को प्राप्त हुई! यही भरत जाति ऋगवेदिक काल मे ईसा पूर्व १९३१-१५६९ मे इतने शक्तिशाली बने कि सभी आर्य तथा अनार्य जातियों को जीतकर एक शक्तिशाली बन गयी कि सभी आर्य तथा अनार्य जातियों को जीतकर एक शक्तिशाली समराज्य कि स्थापना किया! अपने कबीले के नाम पर उसने अपने साम्राज्य का नाम "भारतवर्ष" रखा! भारत = भरत; वर्ष= खंड ! कुछ लोगो का मानना है कि दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष का नाम पड़ा! अनेक इतिहासकारों ने इसे अमान्य कर दिया है ! भारतवर्ष के सीमाओ का वर्णन विषणु पुराण मे इस प्रकार दिया है - भारतवर्ष समुन्द्र के उत्तर मे और हिमालय के दक्षिण मे स्थित है और वहा के संतान का नाम भारती है!
ऋगवैद के अनुसार ( सप्तम मंडल, सूक्त ८३, श्लोक ६-१०) सरस्वती नदी के किनारे भरतगन का राजा सुदास राज्य कर रहा था ! जिसका राजपुरोहित विस्वामित्र था ! पर अनबन हो जाने के कारण सुदास ने विस्वामित्र को हटा कर वसीष्ठ को अपना राजपुरोहित घोषित कर दिया! इस पर विस्वामित्र नाराज होकर १० राजाओ के साथ सुदास पर आक्रमण कर दिया ! पर इस युद्घ मे राजा सुदास को जी विजय श्री मिली! इस तथ्य से साबित होता है कि आर्य के १० राजा, भरतगन राजा सुदास के शत्रु थे ! इससे इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजा सुदास आर्योतर शासक रहा हो ! बहुत से इतिहासकारों का अनुमान है कि यही भरत जाति आगे जाकर भर जाति के नाम से जाने जनि लगी !
हरिवंश पुराण , अध्याय ३३ , पृष्ट ५३ को लक्ष्य बनाते हुए हेनरी ऍम. इलियट ने कहा है कि भरत वंश भर जाति से सम्बंधित है ! जयध्वज इस वंश का शासक था, इसी बात को पुस्ती करने के लिए उन्होंने " ब्रहापुरण" को भी साक्ष्य बनाया है ! 'गुस्तब ओपर्ट' जो कि संस्कृत भाषावेत्ता है उनके अनुसार " ब्राहुई" जाति के बाद , प्राचीन जाति 'बरो' या भरो ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है ! अनेक प्रमाणों के आधार पर हम ये निष्कर्ष पर पहुचते है कि भरत जाति इस देश कि मूल निवासी थी! इस जाति को आर्यों से ही नहीं अनार्यो से भी भीषण युद्ध करनी पड़ी! इस बहादुर जाति के प्रबल शासक सुदास से अकेले सभी ३० राजाओ से युद्ध करना पड़ा जीने नाम है - १. शिन्यु २. तुवर्श ३. द्रुहाहू ४. कवश ५. पुरु ६. अनु ७. भेद ८. वेकर्ण १०. अन्य वेकर्ण ११. यदु १२. मत्स्य १३. पक्थ १४. भालन १५. अलीना १६. विशानिन १७. अज १८. शिव १९. शीग्र २०. यक्षयु २१. यद्धमादी २२. यादव २३. देवक मान्य्मना २४. चापमाना २५. सुतुक २६. उचथ २७. क्षुत २८. वुद्ध २९. मनयु ३०. पृथु !
प्राचीन काल में रुहेलखण्ड: प्राचीन काल में यह क्षेत्र पंचाल राज्य तथा विभाजित पंचाल के उत्तरी पंचाल में नाम से जाना जाता था। पूर्व दिशा में गोमती, पश्चिम में यमुना , दक्षिण में चंबल तथा उत्तर में हिमालय की तलहटी से घिरे पंचाल का भारतीय संस्कृति के विकास एवं संवर्धन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
प्राचीन काल में कुमायूँ के मैदानी क्षेत्र से लेकर चम्बल नदी तथा गोमती नदी तक विस्तृत यह क्षेत्र प्राचीन काल से छठी शताब्दी ई० पू० तक पंचाल राज्य के अन्तर्गत रहा। इसके पंचाल नामकरण के बारे में अनेक मान्यतायें हैं जैसे भरतवंशी राजा भ्रम्यश्व के पाँच पुत्रों में बंटने के कारण अथवा कृवि , तुर्वश , केशिन , सृंजय एवं सोमक पाँच वंशों द्वारा यहाँ राज्य करने के कारण प्राचीन काल में इसका नाम पंचाल पड़ा इत्यादि।
प्राचीन काल में जब आर्य शक्ति का केन्द्र ब्रह्मावर्त था तब पंचाल एक समुन्नत राज्य था। राजा भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा , इन्ही सम्राट भरत का राज्य सरस्वती नदी से लेकर अयोध्या तक फैला हुआ था तब गंगा - यमुना के दोआब में स्थित पंचाल उनके राज्य का सम्पन्न भाग था। सम्राट भरत के ही काल में राजा हस्ति हुए जिन्होंने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई । राजा हस्ति के पुत्र अजमीढ़ को पंचाल का राजा कहा गया है। राजा अजमीढ़ के वंशज राजा संवरण जब हस्तिनापुर के राजा था तो पंचाल में उनके समकालीन राजा सुदास का शासन था। राजा सुदास का संवरण से युद्ध हुआ जिसे कुछ विद्वान ॠग्वेद में वर्णित ' दाशराज्ञ युद्ध ' से समीकृत करते हैं। राजा सुदास के समय पंचाल राज्य का बहुत विस्तार हुआ ।
राजा सुदास के पश्चात संवरण के पुत्र कुरु ने अपनी शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रुप से 'कुरु - पंचाल ' कहलाया। परन्तु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतन्त्र हो गया।
नाग्भारशिव जाति
नाग्भारशिव जाति हम देख चुके है कि सुदास भरत जाति से जुड़े थे जो कालांतर मे जाकर भर जाति कहलाई ! दिवोदास और उसके पुत्र सुदास दोनों के नाम के अंत मे "दास" लगा हुआ है जो ये दर्शाता है वो दास या नाग वंश से जुड़े हुए थे ! प्रत्येक नागो के लिए दास नाम उनकी प्रजाति का नाम बन गया था ! नाग वंश का वर्णन वेदों मे और पुरानो मे भरा पड़ा है ! नागो के साथ शिव शब्द कैसे जुड़ गया इसका एक लम्बा इतिहास है ! भरत वंश के लोग शिव कि पूजा किया करते थे शिवलिंग को धारण करने के कारण नाग, भारशिव कहलाने लगे ! यही भारशिव वंश के लोग भर नाम से प्रशिद्ध हुए !
भर शब्द कि व्याख्या भारशिव के अर्थ मे करते हुए डॉ . काशीप्रसाद जयसवाल कहते है कि विन्ध्याचल क्षेत्र का भरहुत , भरदेवल, नागोड़ और नागदेय भरो को भारशिव साबित करने का अच्छा प्रमाण है! मिर्जापुर , इलाहबाद तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र भरो के प्रदेश रह चुके है ! इस तरह भर का संस्कृत नाम भारशिव है ! इस युग को कुषाण -युग कहा जाता है ! जब भर रायबरेली के शासक थे (७९०- ९९० AD ) भर राजसता स्थापित करने के महत्वाकांक्षी थे ! भारशिव एक जाति का नाम नहीं बल्कि उनकी उपाधि थी ! भारशिव विन्द्य्शक्ति कि जन एकता का प्रतिक थी ! तीसरी शताब्दी के पूर्वाध से प्रारंभ होता हुआ उत्तर भारत तथा मध्य भारत पर नाग्वंशियो का राज्य था ! शुरू मे नाग वंश यहाँ मथुरा और ग्वालियर मे ही था पर कालांतर मे धीरे धीरे इसका विस्तार होकर विदर्भ, बुंदेलखंड तक फैलता चला गया ! ऐसी मान्यता है कि भर लोग मुख्यत: दो कुलो मे बाते हुए थे ! एक शिवभर और दूसरा राजभर . शिबभरो का कार्य राजसता से जुदा नहीं था जबकि राजभर का कार्य राजसत्ता स्थापित कर शासन चलाना था ! राजभर प्रवरसेन को अपना नेता चुना (२८४ ई.) ! गंगा के पवित्र जल कि सोगंध खाकर दोनों एक हुए और कालांतर मे "भारशिब" कहलाए ! भारशिबो के गौरबशाली इतिहास वीरान खंडर, टीले और मंदिर स्तूप उनके प्रकर्मी अतीत को आज भी जीवित रखे हुई है! शिव- पार्वती कि उपासना उनके मंदिर का प्रबल उदाहरण है !
भारशिव नाग वंश से भर शब्द कि उत्पत्ति कि कल्गनना तीसरी या चौथी शताब्दी से निरुपित होती है ! भवनाग ही भारशिव वंश का प्रबल शासक माना जाता है ! भर शब्द भरत जाति से बना है ! इस वाक्य को इस प्रकार कहना कि भर शब्द भारशिव नागो से बना है ! कोई एतिहासिक अंतर नहीं जान पड़ता है ! डॉ. कशी प्रसाद जयसवाल ने भारतीय इतिहास मे ११५ A.D का काल जोड़ कर भारशिव काल कहा है और इस तरह से इतिहास मे नया अध्याय जुड़ गया !
महाराजा भरद्वाज
भर जाति का बलिदान अमर है ! वह देश के लिए था ! देश की रक्षा मे अनगिनत बलिदान चढ़ाने वाली जाति मे भर प्रथम थे ! भर जाति के सम्राटो का क्रमबद्ध इतिहास खोजना अति कष्ट साध्य कार्य है ! जब कही पर किसी सम्राटो का इतिहास प्राप्त भी होता है तो इसके संतति का कोई इतिहास नहीं मिलता है ! अतः वान्श्वाली का क्रम टुटा हुआ सा प्रतीत होता है !
भारशिव वंश के महाराजा भारद्वाज अवध के शासक थे ! महाराजा भारद्वाज के शासनकाल का निर्धारण करना बहुत मुस्किल है ! ऐसा माना जाता है की अवध क्षेत्र मे भर जाति की प्रधानता प्रगेतिहासिक काल से ही थी ! वे अवध से लेकर नेपाल की सीमा तक फैला हुआ था ! टालमी ने जो भारत का मानचित्र अपने प्रवास के दौरान बनाया था जिसका प्रकासन : इंडियन एंटीक्वेरी" मे वर्गीज द्वारा किया गया है ! उनके अनुसार भरदेवी आज का भरहुत ही है जिसे भरो ने बसाया था ! इसकी संपुष्टि जनरल कनिम्घम ने " अर्किलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया" मे किया था ! "बंगाल एसियाटिक जनरल वोलुम XVI , पृष्ट ४०१-४१६ ) मे भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है !महाराजा भारद्वाज उसी काल मे भारशिवो मे एक प्रबल शासक थे ! इस विषय मे एक कहानी प्रचलित है जो मै यहाँ बता रहा हूं!
भारत के प्राचीनतम नगरो मे अवध की पहचान होती है ! इस नगर को बसने वाले देश के मूल लोग ही थे ! इस बात के अनेक प्रमाण उपलब्ध है की यहाँ के प्रबल शासक भर जाति के लोग रह चुके है ! क्ष्री रामचंद्र के पहले भी यहाँ भरो का विस्तृत साम्राज्य था ! प्राचीन अयोध्या को सूर्यवंशी ने ध्वस्त कर डाला, जिसे यहाँ के मूल जातियों ने बसाया था ! सूर्यवंश के पतन के बाद अयोध्या पुन: भरो के अधिकार क्षेत्र मे आ गया ! इस आशय का वर्णन सर सी. इलिएट ने अपने ग्रन्थ "क्रोनिकल्स ऑफ़ उन्नव" मे विस्तृत रूप से करते है ! "इंडियन एंटीक्वेरी" संपादक जैसे वर्गीज (१८७२) मे "आन दि भर किंग्स ऑफ़ इस्टर्न अवध" नामक शीर्षक मे गोंडा का बी. सी. एश. अंग्रेज अधिकारी डब्लू. सी. बेनेट कहता है की अवध के पूर्व मे ४०० वर्षो तक (१०००-१४०० ई.) भरो का साम्राज्य था !
इसी तरह का वर्णन फरिस्ता रिकॉर्ड मे भी मिलता है ! जो "तबकत- ई-नसीरी" मे भी मिलता है ! प्रकाशन विभाग, सुचना और प्रशासन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित (१९७१ ई.), हमारे देश के राज्य "उत्तर प्रदेश" के पृष्ट १६ और १७ पर अंकित है की सन् ११९४ से १२४४ ई. तक अवध पर भरो का सम्राज्य था ! अवध क्षेत्र मे भरो की बहुलता के कारण क्षावास्ती पर सुहलदेव (१०२७-११७ ई.) तथा उनके वंशजो ने बहुत दिनों तक साम्राज्य स्थापित किया ! देखे ( हिस्ट्री ऑफ़ बहराइच, पृष्ट ११६-११७; आइना मसूदी, तरजुमा मिराते, पृष्ट ७८, संहारिणी चालीसा)
भारद्वाज नामक भारशिव वंश ने इसी अवध तथा गोरखपुर क्षेत्र पर अपना राज्य स्थापित किया ! उसके बाद उसका उतराधिकारी सुरहा नामक शासक हुआ ! भारद्वाज उपनाम की जो गणना सेन्सस रिपोर्ट (१८९१) मे भरो के साथ संयुक्त रूप से दि गयी है, वह इस तथ्य को साथ मे या ध्यान मे रख कर दिया गया है की ये भारद्वाज उपनाम वाले लोग ब्राह्मण जाति के भारद्वाज उपनाम वाले लोगो से अलग थे ! सन् १८९१ ई. की जनगणना के अनुसार बलिया मे ८६, गोरखपुर मे १४९८ तथा आजमगढ़ मे २५६३ लोग भारद्वाज उपनाम से जाने जाते थे जो भर जाति से सम्बंधित थे !
भरो मे भारद्वाज उपनाम ऋषि भारद्वाज से नहीं आया है बल्कि ये उपनाम यही भर राजा भारद्वाज के नाम से बना है ! वे अवध के राजा भारद्वाज की संतति के रूप मे लिखते है न की ऋषि भारद्वाज के रूप मे, जिनसे भारद्वाज गोत्र बना !
राजभार जाति अंग्रेज इतिहासकारों की दृष्टी मे
अंग्रेजो द्वारा भर जाति के विषय मे लिखी गई सामग्री के सम्बन्ध मे उनकी जितनी प्रशंशा की जाए उतनी ही कम है! राजभार जाति वह जाति है जिसने सतयुग, त्रेता, द्वापर आदि युगों मे भी अपना डंका बजाय है! गोरखपुर गजेटियर के पृष्ट १७३ और १७५ मे लिखा है की जब अयोध्या का नास हो गया तब वंहा के राजाओ ने रुद्रपुर मे अपनी राजधानी स्थापित की और श्री रामचंद्र के बाद जो लोग गद्दी पर बैढे, वे लोग भर तथा उनके समकालीन जातियो द्वारा परास्त हुए!
जोनपुर गजेटियर के पृष्ट १४८ मे लिखा है कि जब भरो के ऊपर कठोरता का व्यवहार होने लगा तब कुछ पराधीन भर जाति के लोग अपनी जाति का नाम बदल दिया! समयानुसार धीरे धीरे क्षत्रिय मे मिल गए! बलिया गजेटियर के पृष्ट ७७ और १३८ मे कहा गया है कि आर्यों मे से भर भी एक प्राचीन जाति है! इस जाति के नाम पर ही इस देश का नाम भारत पड़ा है!
आज भारत के किसी भी क्षेत्र मे जाइये इस जाति के नाम पर स्थानों के नाम अवश्य मिल जाएँगे! बिहार प्रान्त का नाम भी इसी जाति के नाम पर पड़ा है! दी ओरिजनल इन है विटनेस ऑफ़ भारतवष के पृष्ट ४० पर लिखा है कि कासी के निकट बरना नामक नदी तथा बिहार नामक रास्त्र भर सब्द से निकला है! एक समय मे भर लोग इस प्रान्त पर शासन करने वालो थे और इन्ही कि प्रधानता भी थी बिहार मे गया के पास बार्बर पड़ी पर शिवलिंग स्थापित है इसे भी एक भर राजा ने ही बनवाया है!
मिस्टर शोरिंग:
भर या भार जाति उतरी भारत के गोरखपुर से मध्य भारत के सागर जिले तक पाई जाति है! यहाँ के निवासी इस जाति को भार, राजभार, भरत तथा भरपतवा के नाम से जाने जाते है! आजमगढ़ के भरो का राज्य श्री रामचंद्र के राज्य के समय अयोध्या से मिला हुआ था! अवध प्रान्त मे भरो कि शक्ति बड़ी ही प्रबल थी! प्रयाग से काशी तक इनका सुदृढ़ शासनाधिकार था! भर जाति को असभ्य जाति से जोड़ना सही न होगा क्योकि इनके कार्य कलापों को देखकर किसी राजवंश का इन्हें कहा जा सकता है! व्यवासय के आधार पर उत्तर प्रदेश मे इनका कोई निश्चित व्यापार या व्यवासय नहीं है जैसा कि अन्य हिन्दू जातियों को व्यवासय के आधार पर जाना जाता है! इनका व्यवासय प्राचीन काल मे युद्घ करना था जो इन्हें क्षत्रियो से जोड़ता है! (प्रमाण के लिए पढिये हिन्दू त्रैएब्स एंड कास्ट वालूम फास्ट पृष्ट ३५७) ! भर जाति के लोग पूर्ब काल मे हिन्दू धर्म के अनुसार उपासना करते थे! ( हिन्दू त्रैएब्स एंड कास्ट पृष्ट ३६०,३६१,३६२)
डॉ. बी. ए. स्मिथ
कुछ राजपूत प्राचीन निवासियो कि संतान है अर्थात मध्य प्रान्त तथा दक्षिण के गोंड और भर क्रमश: उन्नति कर के अपने को राजपूत कहने लगे! बुन्देल खंड के चंदेल, दक्षिण के राष्ट्र कूट राजपूताने के राठोर और मध्यप्रांत के गोंड तथा भर यहाँ के राजपूत संतान है! ( अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया चतुर्थ संस्करण) राजपूतो कि उत्पति गोंडा ख्ख्द और भर जाति से हुई है! यह भर जाति सूर्यवंशी, नागवंशी, भारशिव और बाद मे राजपुत्र कहलाई( देखे कंट्री बुसन तो दी हिस्ट्री ऑफ़ बुन्देल खंड , इंडियन अन्तेकर्री XXXII १९०८ पेज १३६,३७ ) !
डी. सी. बैली
अयोध्या के शाशक रामचंद्र ने भर शाशक, केरार को जौनपुर मे हराया था! यदि रामचंद्र (दशरथ के पुत्र ) भर को हराए थे तो ऐसा माना जा सकता है कि भर जाति अति प्राचीन है! ( देखे सेंसेस ऑफ़ इंडिया वोलुम XVI पेज २२१ (१८९१)!
मिस्टर रिकेट्स
भरो का सम्बन्ध उच्च जातियो से है! कही कही राजपूत लोग अपने लड़को कि शादिया भी करते है! इसके प्रमाण विशेस रूप से पाए जाते है इलाहाबाद मे भरोर्ष, गर्होर्स तथा तिकित लोग भरो के वंशज काहे जाते है! तिकित जाति कि एक लड़की से एक चौहान क्षत्री ने शादी कि थी और उसका लड़का उस भर राजा के राज्य पर शाशन करता था! कही कही राजपूत लोग अब भी अपने लड़को कि शादिया भरो कि लड़कियों से करते थे! (रिकेट्स रिपोर्ट पृष्ट १२८ )! प्रयाग के आसपास कि भूमि को उपजाऊ तथा सभ्य बनाने मे भरो ने अधिक परिश्रम क्या था!
मि. गोस्त्ब आपर्ट पी. एच. डी.
एक भर राजा था जिसके ४ पत्नी थी जिसमे एक स्वजतिए थी और तिन अन्य जाति कि थी, अंत मे जिन वंशो के पास आजकल भूमि है और अपने को प्राचीन राजपूत कहते है! चाहे वो सम्मान के भय और समाज कि लज्जा से बात को स्वीकार न करे, परन्तु वास्तव मे भरो के वंसज है! क्योकि किसी समय इस देस के प्रतेक एकड़ भूमि पर भरो का आदिपत्य और बोलबाला था! (दी ओरिजनल तैवितिंस ऑफ़ भारत्वार्स पृष्ट ४४,४५,४६)!
मिस्टर पी. करनेगी
भर लोग राजपूत वंस के है और पहले ये लोग यहाँ के राजा थे! कालांतर मे बोद्ध मत को स्वीकार कर लेने के पश्चात इनके प्रचारथ अदिकांश अन्य देसों मे चले गए! इनकी मुख्य जाति राजभार , भरद्वाज, और कनोजिया कि है! भर लोग पुराने राजपूत तथा पूर्वी अवध के प्राचीन निवासी है! ( देखे रिसर्च ऑफ़ अवध पृष्ट १९ )!
लेफ्टिनेंट गवर्नर मि. थानसन
यधपि भर लोग अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लगभग २०० वर्षो तक युद्घ करते रहे परन्तु असंगठित और कम संख्या मे होने के कारण तथा स्वधार्मियो के विरोध पक्ष ग्रहण करने से अधिक समय तक वे टिक न सके, तथापि इनके लिए यह कम गौरव की बात नहीं है जो देश की मर्यादा और स्वतंत्रता के लिए अपने सम्पूर्ण वैभव को नष्ट कर दिया ( देखे त्रिएब्स एंड कास्ट पृष्ट ३६३) !Top
एच. आर. नेविल
प्रतापगढ़ के भरो के सम्बन्ध मे जहा तक एतिहासिक प्रमाण मिलता है इससे सिद्ध होता है की इनके पूर्वज सोम्व्न्सीय है !( देखे प्रतापगढ़ गजियेटर पृष्ट १४४,१४५,१६७)
मि. डब्लू क्रोक तथा मि. सर हेनरी इलिएट
किसी समय इस जाति की सभ्यता का विकास पूर्ण रूप से था! भरो का सम्बन्ध भरताज वंश से था जिनकी पीढी जयध्वज से सम्बंधित है ! सम्भ्बतः महाभारत काल मे ये लोग "भरताज" नाम से विख्यात थे और पूर्बी भारत खंड मे भीमसेन द्वारा पराजित हुए थे! राम राज्य के समय इनका कुछ आभास मिलता है! इनके राज्य का विस्तार अवध, काशी,पश्चिमी मगध , बुन्देल खंड, नागपुर और सागर के दक्षिणी प्रान्त तक था! ( देखे ओरिजनल हेविटेंस ऑफ़ भारत वर्ष और इंडिया पृष्ट ३७, ३८ )
एच. एम. एलियट
भर स्वं को राजपूत से उच्च मानते है पूर्ब कथित पदवी राज के कारण नहीं! वे परस्पर एक दुसरे के साथ खाते पीते नहीं थे! राजभार लोग खुद को राजपूत मानते है! राजपूत और राजभार लोग दोनों ही राजाओ के वंशज है जो सूर्यकुल और चंद्रकुल से सम्बंधित है! ( देखे रेसेस ऑफ़ दी नॉर्थ- वेस्टर्न प्रोविन्सेस ऑफ़ इंडिया वोलुम फर्स्ट लन्दन १८४४)
मि. डव्लू. सी. बेनट
बुन्देल खंड मे अजयगढ़ और कालिंजर का इतिहास प्रकट करता है की एक आदमी जिसका नाम नहीं दिया गया है, वही परिवार का संचालक था! इसी के अधिकार मे अजयगढ़ का किला था! इस वंश की एक महिला गद्दी पर बिधि थी जिसका भाई दल का अंतिम राजा कन्नौज को परास्त कर के सम्पूर्ण ढाबे पर अधिकार क्या था! इसके बाद दल की मालकी तथा कालिंजर का नाश हुआ! इनके पास कड़ा और कालिंजर के दो किले थे! इनका विस्तार मालवा तक था! दक्षिण अवध के सांसारिक व्यावाहरो सि पूर्ण सिद्ध की ये शहजादे भर थे और घाघरा सि मालवा तक राज्य करते थे ! (देखे दी त्रिएब्स एंड कास्ट वोलुम सेकंड पृष्ट ३ ) !
मि. सर ए. कनिघम
किसी समय देश मे भरो का बोल बाला था! जिनके प्रभुत्व और सभ्यता की प्राचीन परंपरा आज तक चली आ रही है ! ( देखे हिन्दू त्रिएब्स एंड कास्ट वोलुम फर्स्ट पृष्ट ३६२)
बन्दोवस्ती ऑफिसर( अवध प्रान्त) मि. उड़वार्ण
भर जाति शुर वीर पराकर्मी रन कुशल और कला निपुण थी! उनकी सभ्यता स्वयंकी उपार्जित सभ्यता है !
मि. डी. एल. ड्रेक ब्रक्मैन
आर्यों मे सि भर भी एक जाति है! एतिहासिक प्रमाणों द्वारा ये सिद्ध है की आजमगढ़ के प्राचीन निवासी भर तथा राजभर है ! (देखे आजमगढ़ गजेटियर पृष्ट ८४ और १५५)
मि. सी. एश. एलियट
भरो ने ईसा के थोड़े ही काल बाद आर्य सभ्यता का विकाश किया! भरो ने कनक सेना की अध्यक्षता मे अपनी विपक्षी कुसनो को गुजरात तथा उतरोतर नामक पहाडो की और मार भगाया!
डॉ. ओलधम
बुद्ध काल के अवनति के समय भर और सोयरी इस देश पर शासन करते थे! अंग्रेजो ने भर, राजभर जाति के विषय मे जो कुछ भी लिखा है उस सबको एक छोटी सि पुस्तक मे समेट पाना बहुत ही मुस्किल कार्य है! यदि हम चाहे की भर जाति के विषय मे उनके द्वारा लिखी गई रिपोर्ट, जनगणना रिपोर्ट, गजेटियर्स आदि का अध्यन ही कर ले तो इनके लिए के स्सल लग जाएँगे!
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SANDEEP KUMAR BHARDWAJ
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V.B.S.Purvachal , University Jounpur (UP)
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PGDCA Computer course
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ICA computer
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Raja Suhaldev Rajbhar
Bhar
is a word derived from tribal languages like Gondi and Munda, which means
'warrior'. The tribal society of central India used to have its own hierarchy,
with clans ranging from Brahmins (priestly class), warriors to service or
menial class. The tribal society had special respect for its warriors and
martial clans. 'Bhar' is one such clan which had glorious history in medieval
period, having its own small principalities in various parts of North India. As
is evident from the origin of its name, Bhar was a warrior tribe which created
its own history but slowly disappeared from pages of history. The Bhar formed
small kingdoms in the Eastern UP region, until they were disposed by invading
Rajput and Muslim groups in the later middle ages. The last Bhar Raja was
killed by Ibrahim Shah Sharqi, the Sultan of Jaunpur.
Title
Bhar
Rajbhar
Bhardwaj
Ray,rai
Singh
Bharg
Kalhans
Nagbanshiya
Bhar
Bharg
Rajbhar
Bhardwaj
Ray,rai
Singh
Bharg
Kalhans
Nagbanshiya
Bhar
Bharg
Raja Suhaldev Rajbhar
Raja Suhaldev Rajbhar was the great warrior. According to the Gazetteer(Shukla,2003:108), there is a great story of the war between Sayyed Salar Masood and Maharaja Suhaldev. Sayyad Massod was a nephew of Mahmood Ghazanavi. Massod was born in Ajmer in AD 1015. At the age of 16 he started his invasion of Hindustan. He travelled thousand multan to reachDelhi and from there to Meerut, Kannauj and Satrikh in Barabanki. Before arriving at Bahraich, which seems to have been desolated place at that time,he sent Saiyad Saif-ud-din and Mian Rajab,two kotwals(lieutenants) of his army there. A confederation of the nobles of Bahraich threatened the two lieutenants of Massod and tried to push back the army of Islam.
Masood then marched towards the region were at first daunted by the young warrior but gradually took heart and fought against him. But Massod defeated them time after time, until the arrival of Suhaldev turned the tide of victory. Masood was overthrown and slain with his entire follower in AD 1034. He was buried by his servants in Bahraich in the spot chosen by him, where his Dargah was built in AD 1035.
Suhaldev was the eldest son of the king of Sravasti, called Mordhwaj. According to the stories he had many names like Suhaldev,Sakardev,Suhirdadhwaj,Rai Suhrid Dev,Suhridil,Susaj,Shahardev,Sahardev,Suhahldev,Suhildev and Suheldev. But the contemporary print culture he is reffered to as Raja Suhaldev.
taken by: www.rajbharunity.com
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